मेरा गाँव BASETA
इस शहर की ज़िन्दगी से थक गया हूँ मैं,
गाँव से क्यों बिछड़ गया हूँ मैं।
मुझे नहीं चाहिए ये शहर की भाग-दौड़,
गाँव का सुकून ही मेरा मोड़।
वो ठाकुरवाड़ी के पास आम का पेड़,
वहीं बैठते, दिन गुजरते थे।
आम की छाँव में कुछ, कुछ चबूतरे पर,
इस टोला से आते, कुछ उस टोला से आते।
कुछ गमछी बिछाकर बैठते, कुछ आम पे चढ़ जाते,
जनुम तार से भी आते लोग, मिलके ठहाके लगाते।
रात में होती मंडली, मिलके आरती गाते,
ठाकुरवाड़ी के प्रसाद के बाद ही घर का खाना खाते।
सोने को ना चाहिए था ए.सी., ना चाहिए थी नींद की दवाई,
खुले आसमान के नीचे सो जाते, कहीं बेहतर थी
महंगे गद्दे से वो रस्सी वाली चारपाई।
मामा करती पैरों में मालिश और सुनाती कहानी थी,
वहीं सोता था हमारा गाय का बछड़ा और तोता तुफानी भी।
मेरे गाँव की सुबह की तो बात मत पूछो,
कितना सुंदर लगता है!
खेतों की हरियाली और चिड़ियों की चहचहाहट है,
सूरज की पहली किरण से मेरा गाँव खिल उठता है।
चाचा, भैया, बाबा, मामा सब मुस्कुराते नज़र आएंगे,
परेशानी किसी की भी हो, सब साथ खड़े हो जाएंगे।
भूख लगी है अगर कभी भी, किसी के घर में चले जाना,
पेट तो भर जाएगा उनके प्यार से, ऊपर से शुद्ध मिलेगा खाना।
किसी के पेड़ से आम तोड़ लो, किसी के पेड़ से पपीता,
कोई ले आता अचार घर का, कोई ले आता जीरा।
नमक मिलाकर बनाते हम जो, वो स्वादिष्ट सा घूमौआ,
उतना मज़ा क्या देगा ये समोसा पकौड़ी ये बौआ।
चल जाते नदी किनारे, बैठते कई-कई घंटे,
कोई फ़िक्र न, कोई झमेला, नहीं पलते कोई ताने।
दिन काटने को न देखना पड़ता इंस्टाग्राम का शॉर्ट्स,
ना जीना पड़ता वही सोशल मीडिया के आड़ में।
क्रिकेट का बैट-बॉल उठाकर चल देते थे हम तड़ पे।
थक के भी हम गाँव जितना ताज़ा महसूस करते थे,
साला, शहर की ज़िन्दगी में भूल गए हैं,
पता नहीं क्यों इतना मरते हैं।
ना सोने में, ना जगने में, ना जीने में यहाँ मज़ा,
ज़िन्दगी तो लगती है यहाँ चलते-फिरते सज़ा।
शहर में हम हो गए हैं मशीन या कह लो चलते-फिरते डेटा,
मुझे याद आता है मेरा गाँव BASETA।
मुझे याद आता है मेरा गाँव BASETA।